हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात कन्नौज के लिए त्रिकोणआत्मक संघर्ष

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हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात उत्तर भारत में राजनीतिक विकेंद्रीकरण एवं विभाजन की शक्तियां एक बार पुनः सक्रिय हो गईं। कामरूप( वर्तमान असम ) में भास्करवर्मा ने कर्णसुवर्ण तथा उसके आस-पास के क्षेत्रों को जीतकर अपना स्वतंत्र साम्राज्य स्थापित कर लिया तथा मगध में हर्ष के सामंत माधवगुप्त के पुत्र आदित्यसेन ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। 

भारत के पश्चिमी तथा उत्तर-पश्चिमी भागों में कई स्वतंत्र राज्यों की स्थापना हुई।  कश्मीर में कर्कोट वंश की सत्ता स्थापित हुई। सामान्यतः यह काल पारस्परिक संघर्ष तथा प्रतिद्वंदिता का काल था।  इसके पश्चात उत्तर भारत की राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु कन्नौज बन गया जिस पर अधिकार करने के लिए विभिन्न शक्तियों में संघर्ष प्रारंभ हुआ।

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हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात कन्नौज के लिए त्रिकोणआत्मक संघर्ष

 

हर्षवर्धन

चीन से आक्रमण-  जैसा कि पहले ही लिखा जा चुका है हर्ष का कोई पुत्र नहीं था, अतः उसके बाद कन्नौज पर अर्जुन नामक किसी स्थानीय शासक ने अधिकार कर लिया था।  चीनी लेखक मा-त्वान-लीन  हमें बताता है कि 646 ईस्वी में चीन के नरेश ने बंग हुएनत्से  के नेतृत्व में तीसरा दूत मंडल भारत भेजा था।  जब वह कन्नौज पहुंचा तो हर्ष की मृत्यु हो चुकी थी तथा अर्जुन वहां का राजा था। उसने अपने सैनिकों के द्वारा दूत मंडल को रोका तथा उनसे लूटपाट की।  बंग ने किसी तरह भागकर अपनी जान बचाई।

प्रतिशोध की भावना से उसने तिब्बती गंपू तथा नेपाली नरेश अंशुवर्मा से सैनिक सहायता लेकर अर्जुन पर आक्रमण किया। अर्जुन पराजित हुआ उसके बहुत से सैनिक मारे गए तथा उसे पकड़कर चीन ले जाया गया, जहां कारागार में उसकी मृत्यु हो गई। किंतु इस कथन की सत्यता पर संदेह है।  भारतीय स्रोतों में कहीं भी इस आक्रमण की चर्चा नहीं है। इस कथन से मात्र यही निष्कर्ष निकलता है कि हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में अराजकता एवं अव्यवस्था व्याप्त हो गई तथा विभिन्न भागों में छोटे-छोटे राज्य स्वतंत्र हो गए।

हर्ष के बाद प्रमुख राज्य राज्यों का विवरण

कन्नौज का शासक यशोवर्मन 

हर्ष की मृत्यु के पश्चात लगभग 75 वर्षों तक का कन्नौज का इतिहास अंधकारमय  है। इस अंध-युग की समाप्ति के पश्चात हम कन्नौज के राजसिंहासन पर यशोवर्मन नामक एक महत्वाकांक्षी एवं शक्तिशाली शासक को आसीन पाते हैं।

यशोवर्मन के वंश एवं प्रारंभिक जीवन के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। उसके नाम के अंत में वर्मन शब्द जुड़ा देखकर कुछ विद्वान उसे मौखरि शासक मानते हैं, परंतु इस विषय में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते। यशोवर्मन के शासनकाल की घटनाओं के विषय में हम उसके दरबारी कवि वाक्यपति के ‘गौडवहो’  नामक प्राकृतभाषा में लिखित काव्य से जानकारी प्राप्त करते हैं जो उसके इतिहास का सर्वप्रमुख स्रोत है। गौडवहो यशोवर्मन के सैनिक अभियान का विवरण इस प्रकार प्रस्तुत करता है—-

 ‘एक वर्षा ऋतु के अंत में वह अपनी सेना के साथ विजय के लिए निकला।  सोन घाटी से होता हुआ वह विंध्य पर्वत पहुंचा और विंध्यवासिनी देवी को पूजा द्वारा प्रसन्न किया। यहां से उसने मगध के शासक पर चढ़ाई की तथा उन्हें युद्ध में पराजित कर दिया। युद्ध में मगध का राजा मारा गया। तत्पश्चात उसने बंग देश पर चढ़ाई की। बंग लोगों ने उसकी अधीनत

 बंग विजय के पश्चात् यशोवर्मन ने दक्षिण के राजा को परास्त किया तथा मलयगिरि को पार किया। उसने पारसीकों पर चढ़ाई की तथा उन्हें युद्ध में हरा दिया। पश्चिमी घाट के दुर्गम क्षेत्रों में उसे कर (टैक्स) प्राप्त हुआ। वह नर्मदा नदी के तट पर आया तथा समुद्र तट से होता हुआ मरुदेश (राजस्थान रेगिस्तान ) जा पहुंचा। यहां से वह नीलकंठ आया तथा फिर कुरुक्षेत्र होते हुए अयोध्या पहुंचा। मंदराचल पर्वत के निवासियों ने उसकी संप्रभुता स्वीकार की। उसने हिमालय क्षेत्र को भी विजय कर लिया।

 इस प्रकार संसार को विजय करता हुआ वह अपनी राजधानी कन्नौज वापस लौट आया।

‘गौडवहो’ का उपर्युक्त विवरण कहां तक सत्य है यह नहीं कहा जा सकता। इसमें बंग (गौड़) देश के राजा का नाम नहीं मिलता। गौड़  विजय का उल्लेख भी काव्य के अंत में हुआ है। इस काव्य का विवरण अत्यंत अतिरंजित प्रतीत होता है तथा यह विश्वास करना कठिन है कि उसने इस में वर्णित उत्तर और दक्षिण के सभी राज्यों को जीता होगा। परंतु उसकी पूर्वी विजयों की पुष्टि नालंदा से प्राप्त एक लेख से हो जाती है इसमें उसे सार्वभौम शासक कहा गया है। इससे मगध तथा गौड़ पर उसका अधिकार प्रमाणित होता है।

उसके समय में हुई-चाओ नामक चीनी यात्री कन्नौज आया था। यद्यपि वह शासक का नाम नहीं लिखता फिर भी यह बताता है कि वह एक विस्तृत प्रदेश का स्वामी तथा अनेक युद्धों का विजेता था।  विद्वानों का ऐसा मत है कि यशोवर्मन ने जिस मगध राजा को पराजित कर उसका वध किया वह उत्तरगुप्त वंश का जीवितगुप्त द्वितीय था। ऐसा लगता है कि गौड़ (बंगाल) के ऊपर भी उसी का अधिकार था। हुई-चाओ  के अनुसार यशोवर्मन ने पंजाब के कुछ भागों को जीत कर अपने साम्राज्य में मिला लिया था।

यशोवर्मन ने 731 ईसवी में पु-टा-सिन (बुद्धसेन) नामक अपने मंत्री को चीनी शासक के दरबार में भेजा था। चीनी विवरणों में उसे इ-श-फो-मो कहा गया है जो मध्य देश का राजा था। कश्मीर नरेश ललितादित्य मुक्तापीठ जिसने 736 ईसवी में अपना एक दूत मंडल चीन भेजा था, यशोवर्मन का उल्लेख अपने एक मित्र के रुप में करता है। ऐसा लगता है कि इन दोनों राजाओं ने चीनी शासक से अरबों के विरुद्ध सैनिक सहायता की मांग की थी। सिंध को जीतने के बाद अरबों ने कन्नौज की ओर एक सेना भेजी जिसे यशोवर्मन ने हरा दिया होगा। अतः गौडवहो के पारसीकों से तात्पर्य, सिंध के अरबों से ही प्रतीत होता है।

इस प्रकार ललितादित्य तथा यशोवर्मन में कुछ समय के लिए अरबों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा तैयार किया। परंतु शीघ्र ही इन दोनों के संबंध बिगड़ गए। कल्हण की राजतरंगिणी में दोनों शासकों के पारस्परिक संगठनों का उल्लेख हुआ है। ऐसा पता चलता है कि युद्ध में यशोवर्मन बुरी तरह पराजित किया गया और उसका राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। राजतरंगिणी में काव्यात्मक ढंग से कहा गया है–

                          कविर्वाक्यपतिराजश्रीभवभुत्यादी सेवितः । 

                          जितौ ययौ यशोवर्मा तद्गुणस्तुतिवन्दिताम सा ।। 

                          किमन्यत्कान्यकुब्जोर्वी यमुनापारतोऽस्य । 

                          अभूदाकालिकातीर गृहप्रांगणद्वशे ।। 

उपरोक्त पंक्तियों का अर्थ है कि वाक्यपति,भवभूति आदि कवियों द्वारा शोभित यशवर्मा उसका (ललितादित्य का ) गुणगान करने लगा तथा यमुना से लेकर कालिका (काली नदी ) तक के बीच का कन्नौज राज्य का भाग ललितादित्य के महल का आंगन बन गया। इस प्रकार कह सकते हैं कि ललितादित्य और यशोवर्मन के मध्य युद्ध हुआ।

यशोवर्मन ने संभवतः 700 -740 ईसवी तक शासन किया। वह विद्वानों का आश्रयदाता भी था।  वाक्यपति के अतिरिक्त संस्कृत के महान नाटककार भवभूति उसके दरबार में निवास करते थे। भवभूति ने तीन प्रसिद्ध नाटक ग्रंथों – मालतीमाधव, उत्तररामचरित तथा महावीरचरित की रचना की थी। मालतीमाधव 10 अंकों का नाटक है जिसमें माधव तथा मालती की प्रणय-कथा वर्णित है। महावीरचरित के 7 अंकों में राम के विवाह से राज्य अभिषेक तक की कथा है। उत्तररामचरित में भी 7 अंक हैं इसमें रामायण के उत्तरकांड की कथा है। भवभूति करुण रस के आचार्य माने जाते हैं। 

यशोवर्मन शैवमतानुयाई था। उसका उत्थान और पतन उल्का की भांति रहा। जैन ग्रंथों में उसके पुत्र का नाम आमराज मिलता है जिसने उसके बाद कन्नौज और ग्वालियर पर शासन किया। किंतु इन विवरणों की ऐतिहासिकता संदिग्ध है। वर्तमान स्थिति में हम यशोवर्मन के उत्तराधिकारियों के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते। उसके पश्चात हम कन्नौज में आयुध नामधारी राजाओं का शासन पाते हैं इनमें वज्रायुध, इंद्रायुध और चक्रायुध के नाम मिलते हैं। यह सभी अत्यंत निर्मल थे।

 

कन्नौज के लिए त्रिगुणात्मक संघर्ष

हर्ष के पश्चात कन्नौज विभिन्न शक्तियों के आकर्षण का केंद्र बन गया। इसे वही स्थान प्राप्त हुआ जो गुप्त युग तक मगध का था। वस्तुतः हर्ष तथा यशोवर्मन ने इसे साम्राज्यिक सत्ता का प्रतीक बना दिया था।  उत्तर भारत का चक्रवर्ती शासक बनने के लिए कन्नौज पर अधिकार करना आवश्यक समझा जाने लगा।  राजनीतिक महत्व होने के साथ-साथ कन्नौज नगर का आर्थिक महत्व काफी बढ़ गया तथा यह भी इसके प्रति आकर्षण का महत्वपूर्ण कारण से हुआ होगा।

इस पर अधिकार करने से गंगा घाटी तथा इसमें उपलब्ध व्यापारिक एवं कृषि संबंधी समृद्ध साधनों पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता था। गंगा तथा यमुना के बीच स्थित होने के कारण कन्नौज का क्षेत्र देश का सबसे अधिक उपजाऊ प्रदेश था।  व्यापार-वाणिज्य की दृष्टि से यह काफी महत्वपूर्ण था क्योंकि वहां से व्यापारिक मार्ग जाते थे। —

  • एक मार्ग – कन्नौज से प्रयाग तथा फिर  पूर्वीतट तक जाकर दक्षिण से काञ्ची तक जाता था।  
  • दूसरा मार्ग – वाराणसी और गंगा के मुहाने तक जाता था। 
  • तीसरा मार्ग– पूर्व से कामरूप तथा उत्तर से नेपाल और तिब्बत के लिए जाता था। 
  • चौथा मार्ग- कन्नौज से दक्षिण की ओर जाते हुए दक्षिण तट पर स्थित वनवासी नगर में मिलता था तथा 
  • पांचवा मार्ग- कन्नौज से बजान तक तथा उसके बाद गुजरात की राजधानी पहुंचा था। 

जिस प्रकार पूर्व काल में मगध उत्तरापथ के व्यापारिक मार्ग को नियंत्रित करता था, उसी प्रकार की स्थिति कन्नौज ने भी प्राप्त कर ली थी। इस प्रकार राजनीतिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टि से इस पर आधिपत्य स्थापित करना लाभप्रद था। अतः इस पर इस पर अधिकार करने के लिए आठवीं शताब्दी की तीन बड़ी शक्तियों —

  1. पाल 
  2. गुर्जर प्रतिहार तथा 
  3. राष्ट्रकूट 

इन तीन शक्तियों के बीच त्रिकोण संघर्ष प्रारंभ हो गया जो आठवीं – नौवीं शताब्दी के उत्तर भारत के इतिहास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना है।

 

 कन्नौज पर अधिकार के लिए प्रथम संघर्ष – पाल तथा राष्ट्रकूट 

आठवीं सदी के अंत में गुर्जर प्रतिहार नरेश वत्सराज ( 780-805 ईसवी ) राजपूताना और मध्य भारत के विशाल भू-भाग पर शासन करता था। बंगाल में इसी समय पालों  का एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित हुआ। वत्सराज का पाल प्रतिद्वंदी धर्मपाल ( 770-810 ईस्वी ) तथा दक्षिण में राष्ट्रकूट ने अपना राज्य स्थापित कर लिया। वत्सराज और धर्मपाल का समकालीन राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव (780-793 ईस्वी ) था। वह भी दक्षिण भारत में अपना राज्य सुदृढ़ कर लेने के पश्चात राजधानी कन्नौज पर अधिकार करना चाहता था। अतः कन्नौज पर अधिपत्य के लिए प्रथम संघर्ष वत्सराज धर्मपाल तथा ध्रुव के बीच हुआ।

कन्नौज पर अधिकार के प्रारम्भिक संघर्ष

सर्वप्रथम कन्नौज पर वत्सराज ( गुर्जर प्रतिहार ) तथा धर्मपाल ( पाल वंश ) ने अधिकार करने की चेष्टा की। परिणामस्वरूप दोनों में गंगा-यमुना के दोआब में कहीं युद्ध हुआ। इस युद्ध में धर्मपाल की पराजय हुई। इसका उल्लेख राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय के राधनपुर लेख 808 ईसवी में हुआ है।  जिसके अनुसार ‘मदांध वत्सराज  ने गौड़राज की राजलक्ष्मी को आसानी से हस्तगत कर उसके दो राजछत्रों को छीन लिया।

‘पृथ्वीराजविजय’ में भी इस संबंध में एक संदर्भ मिलता है जिसके अनुसार चाहमान नरेश दुर्लभराज  ने गौड़ देश को जीतकर अपनी तलवार को गंगा सागर के जल में नहलाया था।  संभवतः वह वत्सराज का सामंत था तथा उसी की ओर से उसने गौड़ नरेश के विरुद्ध युद्ध में भाग लिया था। 

इस प्रकार वत्सराज ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया तथा वहां का शासक इंद्रायुध उसकी अधीनता स्वीकार करने लगा। इसी समय राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव ने विंध्यपर्वत पार कर वत्सराज पर आक्रमण किया। वत्सराज बुरी तरह पराजित हुआ तथा वह राजपूताना के रेगिस्तान की ओर भाग निकला।

राधानगर लेख में कहा गया है कि उसने वत्सराज के यश के साथ ही उन दोनों राजछत्रों को भी छीन लिया जिन्हें उसने गौड़ नरेश से लिया था। ध्रुव ने पूर्व की ओर बढ़ कर धर्मपाल को भी पराजित कर दिया। संजन तथा सूरत के लेखों में ध्रुव की इन सफलताओं का उल्लेख मिलता है।

संजन लेख के अनुसार उसने गंगा-यमुना के बीच भागते हुए  गौड़राज की लक्ष्मी के लीलारविन्दो और श्वेतछत्रों को छीन लिया। परंतु इन विजयों के पश्चात ध्रुव दक्षिण भारत लौट गया जहां 793ईस्वी में उसकी मृत्यु हो गई।

 

पालों और गुर्जर प्रतिहारों  बीच संघर्ष

ध्रुव के उत्तर भारत के राजनीतिक दृष्टि से ओझल होने के बाद पालो तथा गुर्जर प्रतिहार में पुनः संघर्ष प्रारंभ हो गया। इस बार पालों का पलड़ा भारी था। भागलपुर अभिलेख से पता चलता है कि धर्मपाल ने कन्नौज पर आक्रमण किया था तो वहां इन्द्रायुध को हरा हटा कर अपनी ओर से चक्रायुद्ध को शासक बनाया। इसमें कहा गया है कि धर्मपाल ने इंद्रराज और दूसरे राजाओं को परास्त कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया किंतु उसे चक्रायुध को उसी प्रकार वापस दे दिया जिस प्रकार बलि ने इंद्र आदि शत्रु को जीत कर भी वामनरूप विष्णु को तीनो लोक प्रदान किया था। 

              जित्वेंद्र्राज प्रभुतीनरातीनुपार्जिता येन महोदयश्री:

              दत्ता पुनः सा बलीनार्थयित्रे चक्रायुधायानति ।।

स्पष्ट है कि यहां इंद्र की समता इंद्रराज से तथा विष्णु की समता चक्रायुध से की गई है। खालिमपुर अभिलेख में वर्णन मिलता है कि धर्मपाल ने कान्यकुब्ज के राजा के रूप में स्वयं को अभिषेक करने का अधिकार प्राप्त कर लिया लेकिन पांचाल के प्रसन्न वृद्धों द्वारा उठाए गए अभिषेक कलश से कान्यकुब्ज के राजा का अभिषेक किया। इसे भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु, यदु, यवन, अवन्ति, गांधार तथा कीर के राजाओं ने अपने मस्तक झुकाकर धन्यवाद देते हुए स्वीकार किया था। 

 इस विवरण से स्पष्ट है कि कन्नौज के राजदरबार में उपस्थित सभी शासक धर्मपाल की अधीनता स्वीकार करते थे। धर्मपाल एक बड़े भूभाग का शासक था। परंतु उसकी विजय स्थायी नहीं हुई। गुर्जर प्रतिहार वंश की  सत्ता वत्सराज के पराक्रमी पुत्र नागभट्ट द्वितीय (805-833) के हाथों में आ गई। उसने सिंध, आंध्र, विदर्भ तथा कलिंग को विजित किया तथा कन्नौज पर आक्रमण कर चक्रायुध को वहां से निकल दिया। 

ग्वालियर प्रशस्ति में कहा गया है कि चक्रायुध की नीचता इसी बात से सिद्ध थी कि वह दूसरों के ऊपर निर्भर रहता था। वहां दूसरों से तात्पर्य धर्मपाल से हैं।  नागभट्ट कन्नौज को जीतने  मात्र से संतुष्ट नहीं हुआ, अपितु उसने धर्मपाल के विरुद्ध भी प्रस्थान कर दिया। मुंगेर में नागभट्ट तथा धर्मपाल की सेनाओं के बीच में युद्ध हुआ जिसमें पाल नरेश की पराजय हुई ।

ग्वालियर लेख इसका काव्यात्मक विवरण इस प्रकार प्रस्तुत करता है – बंग  नरेश अपने गजों के साथ,अश्वों एवं रथों के साथ घने बादलों के अंधकार की भांति आगे बढ़कर उपस्थित हुआ किंतु इन लोगों को प्रसन्न करने वाले नाग हटने उदयीमान सूर्य की भांति आगे बढ़कर उपस्थित हुआ। किन्तु त्रि;त्रिलोकों को प्रसन्न करने वाले नागभट्ट ने उदयीमान सूर्य की भांति उस अंधकार को काट डाला। 

इस विवरण से स्पष्ट है कि युद्ध में धर्मपाल की पराजय हुई। भयभीत पाल नरेश ने राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय (793-814)  से सहायता मांगी। फलस्वरुप गोविंद तृतीय  ने नागभट्ट पर आक्रमण किया।  संजन ताम्रपत्र से पता चलता है कि उसने नागभट्ट द्वितीय को पराजित किया तथा मालवा पर अधिकार कर लिया।

धर्मपाल तथा चक्रायुध  ने स्वतः उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। गोविंद आगे बढ़ता हुआ हिमालय तक जा पहुंचा परंतु उत्तर में अधिक दिनों तक नहीं ठहर सका। उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर दक्षिण के राजाओं ने उसके विरुद्ध एक संघ बनाया जिसके फलस्वरूप उसे शीघ्र ही अपने गृह-राज्य वापस आना पड़ा।  

गोविंद तृतीय के वापस लौटने के पश्चात पालों तथा गुर्जर-प्रतिहारों में में पुनः  संघर्ष छिड़ गया। इस समय पाल वंश का शासन धर्मपाल के पुत्र देवपाल (810-850 ईसवी ) के हाथ में था। वह शक्तिशाली शासक था।  उसने 40 वर्षों तक राज्य किया तथा उसका साम्राज्य विशाल था। उसका समकालीन गुर्जर-प्रतिहार वंश का रामभद्र एवं निर्वल  शासक था। वह देवपाल का सामना करने में असमर्थ था।

देवपाल के मुंगेर लेख से पता चलता है कि उसने उत्कल, हूण, द्रविड़ एवं गुर्जर-प्रतिहार राजाओं के गर्व को चूर्ण कर दिया। यहां गुर्जर नरेश से तात्पर्य रामभद्र से ही है, जो नागभट्ट का उत्तराधिकारी था। 

 

गुर्जर-प्रतिहार शासक महिरभोज प्रथम (836-885) 

 देवपाल के बाद विग्रहपाल ( 850-850 ) तथा फिर नारायणपाल (854-908 ) शासक हुए।  इनके समय मैं पालो की शक्ति कमजोर पड़ गई। इसी समय गुर्जर-प्रतिहार वंश के शासन की बागडोर अत्यंत पराक्रमी शासक महिरभोज प्रथम (836-885)  के हाथों में आई। वह इतिहास में भोज नाम से अधिक प्रसिद्ध है। उसने अपने वंश की प्रतिष्ठा पुनर्स्थापित करने की कोशिश की। सर्वप्रथम भोज ने कन्नौज तथा कालिंजर को जीतकर अपने राज्य में मिलाया। 

किंतु वह पाल शासक देवपाल तथा राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ( 878-914 ) द्वारा पराजित किया गया। ऐसा लगता है कि भोज ने देवपाल के शासन के अंत में उसे पराजित कर दिया। क्योंकि ग्वालियर लेख में कहा गया है कि लक्ष्मी ने धर्म के पुत्र को छोड़कर भोज  का वरण किया धर्मपाल—-( धर्मापत्य: यशः प्रभुतिरप्रालक्ष्मी: पुनर्भुन्नर्या )

यहाँ धर्म के पुत्र से तात्पर्य धर्मपाल के पुत्र देवपाल से ही है। कृष्ण द्वितीय के देवली तथा करहद के लेखों में कहा गया है कि उसने भोज को भयभीत किया था। किंतु ये भोज की प्रारंभिक असफलताएं थी।  इससे उसे विशेष क्षति नहीं हुई। इसी समय देवपाल की मृत्यु हो गई तथा पालवंश की सत्ता निर्वल व्यक्तियों के हाथों में आई। 

पालों पर राष्ट्रकूटों ने भी आक्रमण किया। इससे भोज को अपनी शक्ति संगठित करने का अवसर मिल गया। उसने चेदि तथा गहलोत वंशों के साथ मैत्री संबंध स्थापित कर अपनी स्थिति मजबूत कर ली। तत्पश्चात उसने देवपाल के उत्तराधिकारी शासक को बुरी तरह परास्त किया। इस समय राष्ट्रकूट तथा चालुक्यों में पारस्परिक संघर्ष चल रहा था। 

चालुक्य नरेश विजयादित्य तथा भीम ने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वित्य को परास्त किया। कृष्ण की उलझन का लाभ उठाते हुए भोज ने नर्मदा नदी के किनारे उसे परास्त किया तथा मालवा को उससे छीन लिया। तत्पश्चात भोज ने  काठियावाड़, पंजाब, अवध आदि प्रदेशों की विजय की। उसने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की तथा कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया। 885 ईस्वी में भोज की मृत्यु हो गई।

भोज प्रथम के बाद उसका पुत्र महेंद्र पाल प्रथम शासक हुआ जिसने 910 ईसवी तक शासन किया।  बिहार तथा उत्तरी बंगाल के कई स्थानों से उसके लेख मिलते हैं जिसमें उसे परमभट्ठारकपरमेश्वरमहाराजाधिराजमहेन्द्रपाल’ कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि मगध तथा उत्तरी बंगाल के प्रदेश भी पालों  से गुर्जर-प्रतिहारों ने जीत लिया। इन प्रदेशों के मिल जाने से प्रतिहार साम्राज्य अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुंच गया।  

इस प्रकार साम्राज्य के लिए नवी शताब्दी के तीन प्रमुख शक्तियां – गुर्जर-प्रतिहार, पाल तथा राष्ट्रकूट में- जो त्रिकोणात्मक संघर्ष प्रारंभ हुआ था उसकी समाप्ति हुई। स्पष्ट है कि  संघर्ष में अंततोगत्वा प्रतिहारों को ही सफलता प्राप्त हुई। तथा कन्नौज के ऊपर उनका स्थापत्य स्थापित हो गया।

देवपाल की मृत्यु के बाद उत्तरी भारत की राजनीति से ओझल हो गए। तथा प्रबल शक्ति के रूप में उनकी गणना नहीं रही। ऐसा ज्ञात होता है कि प्रतिहार शासक महिपाल प्रथम (912-943) के समय में राष्ट्रकूट राजा इंद्र तृतीय तथा कृष्ण तृतीय ने कन्नौज नगर पर आक्रमण किया तथा थोड़े समय के लिए प्रतिहारों के अधिकारों को बेदखल कर दिया किंतु राष्ट्रकूटों की सफलता क्षणिक रही और उनके हटने के बाद वहां प्रतिहारों का अधिकार पुनः सुदृढ़ हो गया।


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